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परम सत्ता पर विश्वास हो
चिंता की परिधि से हो पृथक
सदचिंतन का विस्तार हो
मलिन कराल ताप तिमिर से
धवल शशि का दीदार हो।
लौकिकता के अंतहीन क्षितिज से
पारलौकिक शक्ति का संधान हो
भीड़ के अशांत कोलाहल से
निर्लिप्त एकांत गुंजन गान हो।
मैं-तू की मोह निशा से निकल
आत्मिक अनहद नाद हो
पूर्वाग्रह से निकल दूर
सत्य सनातन का विस्तार हो।
नव विश्वास का दीपक जले
नव प्रभात का आगाज हो
शुष्क पड़ी भाव निर्झरणी में
करुणा का स्नेहिल संचार हो।
जय-पराजय की मनोदशा मे
प्रारब्ध मधुर रस पान हो
विजय श्री नित वंदनीय है
पराजय पूजा आशीर्वाद हो।
सुख-दुख हैं अपने ही कर्म फल
तटस्थ भाव स्वीकार्य हो
कुछ भी नही थिर जग उपवन में
परम सत्ता पर अटूट विश्वास हो।
दिलीप कुमार गुप्त
प्रधानाध्यापक
मध्य विद्यालय कुआड़ी, अररिया