प्रकृति की छवि
बसाके अपनी आँखो में
तेरी अदभुत छटा निहार रही
मन उपवन बन पुकार उठी
प्रकृति की देख शृंगार सखी।
तेरे हृदय के गहरे सागर में
हंसो का जोड़ा झूम रहा,
लगता है जैसे “धरा” तुम्हें
आकाश मगन हो चूम रहा।
दिल करता है एक पल भी
तुझसे हटे न नजर कभी,
बैठा लूँ “छवि” आखों में
तेरी अदभुत है शृंगार सभी।
है नमन तुम्हें मेरा ओ “सृष्टि”
तुझसे ही तो जग में प्रेम खिले,
मन बाग बाग हो जाता है
“प्रकृति” से तू जब गले मिले।
हर पल मनभावन होता है
हर दिन सावन बन जाता है,
चहुँ ओर छटा तेरी है निखरी
मुझे इन्द्रधनुष दिख जाता है।
स्वरचित
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा
मुजफ्फरपुर बिहार
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