सत्य अलंकार
सत्य का प्रकाश कभी धूमिल नहीं होता,
उभर आएगा इक दिन, यह बोझिल नहीं होता,
परख़ लेने दो ख़ुद को सत्य की कसौटी पर,
क्योंकि साथ इसके फ़रेबों का महफ़िल नहीं होता।
उठेगा पर्दा जब किसी दिन शाश्वत सत्य से,
धिक्कार उठेगा मन-मस्तिष्क ह्रदय के स्वत्व से,
बेबाकी से बोलना ही सत्य की मर्यादा है,
क्या कभी देखा है जीतते झूठ को सर्वत्र से।
सत्य का नज़राना होता बड़ा ही लज़ीज़ है,
जो थामे सत्य का डोर वही ख़ुशनसीब है,
इस नश्वर शरीर का परित्याग तो होना ही है,
बता जाए जो जीवन का सार, वही तो हबीब है।
कंपन अवश्य हो सकते हैं सत्य के दीवार में,
लेकिन धराशायी होते कभी देखा है क्या,
सत्य भले ही छिप जाए मक्कारों के बाज़ार में,
लेकिन सत्य की रुसवाई कभी देखा है क्या?
जो धारण कर लिया जाए परम सत्य अलंकार
मुक्कमल ज़िंदगी का सफ़र सत्मार्ग बन जाए,
मिट जाना है इक रोज मीठे झूठ का अहंकार,
सत्य ही दिव्य और अलौकिक राग बन जाए।
नूतन कुमारी (शिक्षिका)
पूर्णियाँ, बिहार