स्वतंत्र
ऐ नादान इंसान, तुम मुझे जाने कैसे प्यार करते थे।
अपनी इच्छा से जाने क्या क्या खिलाया करते थे ।
कभी पुचकारते कभी सहलाते रहा करते थे।
फिर भी में खुश नहीं
रह सका क्योंकि तुम मुझे पिंजरे में कैद रखा करते थे।
तुम्हे डर था मैं उड़ न जाऊँ
तुमसे बिछड़ न जाऊँ इसलिए
तुम मुझे कैद रखा करते थे ।
मैं था विवश, कैद, था चहुँ ओर मेरे पिंजडा रूपी यंत्र में
मैं चाहता कर दो मुझे स्वतंत्र
मैं मुक्ति हेतु पढता रहता जो भी तुम मुझे सिखलाते मंत्र
तुम मुझसे आकर्षित रहते, पर रखते हर वक्त परतंत्र ।
ये कैसा तुम्हारा प्रेम है कैसा तुम्हारा स्वार्थ व मोह-तंत्र
क्यूँ करते हो ऐसी साजिश क्यों करते हो घोर षड्यंत्र ।
मुझे उडने दो उन्मुक्त गगन में
मुझे झुलने दो वृक्षों की डाली पर स्वतंत्र !
मैं हृदय से चाहता कर दो मुझे स्वतंत्र।
मुझे कैद ना करो, न रखो मुझे परतंत्र
विधि की विडम्बना आज मिल गई मुझे पिंजडे से मुक्ति ।
झूम रह हूँ वृक्षो की टहनियों पर डाली-डाली शाम दोपहर।
नहीं है बंद पिंजरा नहीं मैं परतंत्र।
जी रहा मैं अपनी जिंदगी स्वतंत्र !!
अश्मजा प्रियदर्शिनी
पटना, बिहार