पर्यावरण सोच-सोचकर ये मन सोच नहीं पाता, क्यों हे! मानव पर्यावरण को छ्लाता। कहता मैं कर्म करता नित भला सबका, पर व्यावहारिक पुरुषार्थ कभी न दिखलाता। मन मसक्क्त की गलियों…
SHARE WITH US
Share Your Story on
स्वरचित कविता का प्रकाशन
Recent Post
- सर्द हवा-राम किशोर पाठक
- जमाने में – गजल – राम किशोर पाठक
- अनुराग सवैया – राम किशोर पाठक
- गिरीन्द्र मोहन झा
- जुआ-रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’
- छंद रचना को गहूँ-राम किशोर पाठक
- That one of the Worst feelings- Ashish Kumar Pathak
- पशु अधिकार दिवस…नीतू रानी
- दोहा छंद…रामकिशोर पाठक
- शरण गहूँ दिन-रात – राम किशोर पाठक