वाणी
वाणी मधुरिम नित ही बोलें
हृदय तराजू इसको तोलें।
बोल परिष्कृत सबको भाये
जन-जन में ही तब यह छाये।।
सरस बोल अनमोल खजाना
जीवन में तुम इसे बचाना।
कोयल जैसी वाणी छेड़ें
कभी न इससे मन को मोड़ें।।
कर्ण कटु वाणी हिय न भाए
न औरों के कंठ सुहाए।
वाणी मीठी काज बनाए
संत जनों को बहुत सुहाए।।
वचन सरस का भाव हमारा
यही जगत का एक सहारा।
मन मनुज तुम सुकर बनाना
वाणी से शीतल कर जाना।।
वाणी को औषधि ही जानें
करामात इसकी पहचानें।
वाणी से ही नाता जोड़ें
छाप सदा वाणी से छोड़ें।।
वाणी ही पहचान कराती
औरों में यह प्रेम बढ़ाती।
कोयलिया की वाणी देखें
मन में जरूर इसको लेखें।।
देव कांत मिश्र ‘दिव्य’
शिक्षक, भागलपुर, बिहार
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