वरदराज की कहानी
आओ बच्चों, तुम्हें सुनाता,
हूंँ मैं एक कहानी आज।
गुरुकुल में एक बालक रहता,
नाम था जिसका वरदराज।
पढ़ने में रुचि नहीं थी उसकी,
था विद्या से कोसों दूर।
गुरुजी भी उससे हार चुके थे,
पढ़ाने की कर कोशिश भरपूर।
एक दिन बोले गुरुजी उससे,
बेटा, तुम जाओ अपने घर।
पढ़ना लिखना नहीं वश में तेरे,
काम करो कुछ घर रह कर।
हो उदास वह घर को चला,
छूकर अपने गुरु के पैर।
रस्ते में वह सोच रहा था,
विद्या को है क्या मुझसे वैर।
चलते-चलते उसे प्यास लगी,
पहुंचा एक कुएं पर जाकर।
एक पनिहारिन से जल मांगा ,
निज प्यास बुझाने की खातिर।
जल पीकर उसकी नजर पड़ी,
कुएं के जगत के गड्ढे पर।
बोला, इतने सुंदर गड्ढे,
क्या आप बनाये हैं इस पर।
पनिहारिन बोली, नहीं, नहीं,
इनको न बनायी हमने है।
ये तो स्वयं ही बन जाते,
जब घड़े निरंतर रखते हैं।
सोच में फिर पड़ गया वो बालक,
जब गड्ढे बनते अपने से।
इतने कठोर पत्थर घिस जाते,
हैं बस घड़ों को रखने से।
मन में फिर उसने ठाना,
मैं मेहनत करुंगा जम कर के।
देखूं , विद्या फिर कैसे न,
आती है पास मेरे चल के।
वो लौट पड़ा फिर गुरुकुल,
और पढ़ने लगा पागल बन कर।
फिर बहुत बड़ा विद्वान बना,
संस्कृत का वो आगे चलकर।
सुधीर कुमार
म. वि. शीशागाछी
टेढ़ागाछ जिला किशनगंज