वसुंधरा
वसुंधरा सदा पावन बने
बहे हृदय ऐसा विचार।
हरी-भरी नित इसे बनाकर
करें हम जीवन साकार।।
इस धरा पर शस्य जब उगते
मिलती हैं खुशियाँ अपार।
रखें नहीं कलुषित विचार हम
फसलों से पुलकित संसार।।
भाव संकल्प सुदृढ़ बनाकर
लगाएँ हमसब वृक्ष हजार।
तरु से ही यह धरती शोभित
लाएँ नित हम नव बहार।।
नदियाँ जब बहती धरती पर
करतीं सदा जन उपकार।
निर्मल भाव पगे जब घर में
दिखे तभी सौम्य व्यवहार।।
सीखो तपना धरती जैसा
सहनशक्ति का हो भंडार।
अपने हाथों तरु मत काटो
हो यही जीवन का सार।।
स्वच्छ जल और हवा शुद्ध हो
करें सदा प्रकृति से प्यार।
रखें समभाव हर प्राणी से
वसुंधरा से कर दुलार।।
प्रकृति तभी दुल्हन-सी दिखती
मन जब ले नया आकार।
दिव्य कहे हे! वसुंधरा माँ
तू जगत का है आधार।।
देव कांत मिश्र ‘दिव्य’
भागलपुर बिहार