अंक
अंक-अंक जोड़कर वो अंक भर गया,
फिर अंक में वो भरने का जिद कर गया,
जब अंक के हिसाब में, सिर खपने लगें,
फिर अंक से हीं चेहरे का अंक बदल गया।।
है अंक से हीं अंक का नाता अजीब सा,
है अंक से हीं राज खुलता नसीब का,
है अंक का हीं खेल रेल, जेल, मेल में,
है अंक हीं जो जिंदगी का पाश बन गया।।
अंक से हीं भेद है बना यहॉं- वहॉं,
अंक हीं हैं पाटता भी जाकर जहॉं- तहॉं,
अंक से हीं हार-जीत होते हर जगह,
अंक से हीं शासन का सोंच हो गया।।
अंक का है खेल छंद- काव्य के विभेद में,
अंक का है खेल, खेल के मतभेद में,
अंक झांकते सदा, अंक ताकतें सदा,
अंक हीं तो जिंदगी का शोध हो गया।।
कहीं अंक से हीं सूना, है पड़ा आंगन,
कहीं अंक को यहॉं, है तरस रहा जीवन,
जो अंक के हीं व्यूह में उलझ गया पाठक,
वक्त और सत्य का अंक बोध हो गया।।
रचयिता:- राम किशोर पाठक
प्राथमिक विद्यालय भेड़हरिया इंगलिश पालीगंज पटना
संपर्क – 9835232978
