सदा कर्मनिष्ठ, सच्चरित्र, आत्मनिर्भर बनो तुम,
जिस काम को करो तुम, उससे प्रेम करो तुम।
नित नई ऊँचाई छूकर, सदा आगे बढ़ो तुम,
यदि कर सको तो, जरुरतमंदों की मदद करो तुम।
मर्यादित बनो, सहिष्णु बनो, स्वाभिमानी बनो तुम,
जिस काम को करो तुम, उससे ही प्रेम करो तुम।
आत्मभाव में सदा स्थित रहकर, सदा समदर्शी बनो तुम,
सुख-दुख, लाभ-हानि, शीत-उष्ण द्वंद्वों में सदा समान रहो तुम।
यदि कर सको तो, दीन-दुखियों की मदद करो तुम,
हृदय का उत्साही बनकर, सदा धैर्यवान बनो तुम।
हँसो, औरों को भी हँसाओ, सदा-सर्वदा प्रसन्न रहो तुम,
निज आदर्श से, निज कर्म से, अमिट चिह्न छोड़ो तुम।
कष्ट आए, विपत्ति आए, चाहे भीषण परिस्थिति,
डटकर सदा खड़े रहकर, हिम्मत कभी न हारो तुम,
शरणागत को शरण देकर, निरंतर आगे बढ़ो तुम,
जिस काम को करो तुम, उससे ही प्रेम करो तुम।
निन्दा किसी की न सुनो तुम, यदि कोई करे, नम्रता से हट जाओ तुम,
दूसरों के दोष न देखो, न ही चर्चा करो, इनके सद्गुण को अपनाओ तुम।
दूसरों के दोष कभी उसे न दिखाओ तुम, यदि तुम्हें किसी को सुधारना हो, तो केवल उसकी अच्छाई ही उसे दिखाओ तुम।
खुद मनुष्य बन, औरों को भी मनुष्य बनाओ तुम,
हो सके तो मानव समाज के सारे भेद-भाव मिटाओ तुम।
बड़ों के अनुभवों से शिक्षा लेकर, निज पथ पर सतत बढ़ते रहो तुम,
दूसरे कितनी भी करे निन्दा-स्तुति, निज पथ-निज लक्ष्य को न कभी छोड़ो तुम।
खुद आगे बढ़कर, औरों को भी राह दिखाओ तुम,
जिस काम को करो तुम, उससे ही सदा प्रेम करो तुम।
वृक्षारोपण करो तुम, प्रकृति-पर्यावरण से प्रेम करो तुम,
सदा निर्भीक बनकर, धरती को हरा-भरा बनाओ तुम ।
गिरीन्द्र मोहन झा,
+2 शिक्षक, +2 भागीरथ उच्च विद्यालय, चैनपुर-पड़री, सहरसा