सुर संस्कृत में छठ-महिमा, सब मुक्त कंठ से गाते हैं।
तब सविता के प्रखर प्राण को, आत्मसात् कर पाते हैं।।
शुचि, आहार-विहार नीति का, पालन इसमें होता है,
फिर श्रद्धा, विश्वास, प्रेम का, पोषण इसमें होता है,
जननीवत् वरदान प्रकृति के,सहज हमें मिल पाते हैं।
तब सविता के प्रखर प्राण को, आत्मसात् कर पाते हैं।।
प्राच्य संस्कृति में नदियाँ भी, देवी का पद पाती हैं,
उनसे निर्मल भाव जुड़े तो, जीवन को सरसाती हैं,
पावनता के लिए पर्व को, गंगा तीर मानते हैं।
तब सविता के प्रखर प्राण को, आत्मसात् कर पाते हैं।।
संध्या वंदन की गरिमा से, मनुज श्रेष्ठता पाता है,
तप की भट्टी में तपकर वह, जीवन धन्य बनाता है,
सूर्य अर्ध्य विज्ञान समझकर, हम साधक बन जाते हैं।
तब सविता के प्रखर प्राण को आत्मसात् कर पाते हैं।।
गौ, गंगा, गीता, गायत्री, मानवता के गौरव हैं,
शुचिता स्वास्थ्य समृद्धि चेतना, इनके द्वारा संभव है,
सूर्य देव के आराधन से, हम इनको विकसाते हैं।
तब सविता के प्रखर प्राण को, आत्मसात् कर पाते हैं।।
रत्ना प्रिया
शिक्षिका (11-12)
उच्च माध्यमिक विद्यालय माधोपुर
चंडी, नालंदा