डूबते को सहारा
ये सिखाती है
पानी की धारा
कभी पतवार बन
कभी सवार बन।
उगते को सब सलाम करते हैं
आज डूबते को भी
पूजा गया
इस आशा के साथ
की कल
उगते को पूजना है
जो आग का गोला है
पर अब तक न मुँह खोला है
सिर्फ जीवन देता है
लेता है कुछ भी नही
बस एक अंजुरी का
पानी
वो भी धरा सोख लेती है
प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में
पौधे अपना काम कर लेते हैं
आदमी टुकूर- टुकूर देखता है
कब किसको हथियाये
कुछ देने का नही
सिर्फ लेने का
ये कैसा है आदमी
उस अर्घ्य से नही सीखा
जिसको देने से तुम्हारी
आंखे भी चमकदार हो जाती है
पर तुम्हें तो सिर्फ लेने की ही पड़ी है
देना नही जानते हो
आवाज! अस्मिता!अक्ल?
© विनय विश्वा
शिक्षक सह शोधार्थी
महाबल भृगुनाथ+2उच्च विद्यालय कोरिगांवा बहेरा