तूफान के संग
घोर तिमिर में
घिरा पथिक
ढूंढ़ता है
राह कुछ
मन के अवसादों की
पोटली का बोझ
सिर पर उठाए
विचलित
भयभीत है
पथिक!
ऐसा क्या कुछ हो सकेगा
भला कोई सूरज
खिल सकेगा
उबरना तो होगा ही तुझे
सूर्यास्त की यादों से
पथिक!
यह अंधियारे तो
आते ही रहते हैं
यह आंधियां तो
करती ही रहती हैं
चिराग बुझाने का जतन
पथिक,फिर भी
चिराग बुझते कहाँ हैं
सूरज मिटता कहाँ है
पथिक!
सच मानो,फिर होगी
कल की सुबह
यह अंधियारे जाएंगे
साबुत ही रहेगा
तुम्हारा घरौंदा
यह तूफान
गुजर जाएंगे
पथिक!
तुम मात्र तुम न हो
तुम विभूति हो
मनुजता की
जो नहीं बनी है
हारने को
जो अदम्य है
जो अजेय है
समर संग्राम है यह
जीवन का,पथिक
नाम है यह
छोड़ना साहस को
स्वयं का
अवसान है यह
नहीं यह कैसे हो सकेगा
तुझे साबित करनी होगी
अपनी श्रेष्ठता
तुझे अविराम चलना होगा
अंधियारे के बीच
तूफान के संग
तुझे यात्रा पूरी करनी ही होगी
प्रभात के उस सौंदर्य तक
जहां टकटकी लगा कर
हमारी बाट जोह रहा है
हमारा सूरज…
गिरिधर कुमार