“तू”चल अकेली
वज़ूद है”तू”इस सृष्टि की
दुनियां की है अबूझ”पहेली” ,
समझेगा कौन तेरे मन को
छोड़ दे सब”तू”चल अकेली ।
बंट गई है रिश्तों में कितने
कब बन पाई अपनी “सहेली”,
कोई कहां मनमीत है तेरा
छोड़ दे सब”तू”चल अकेली।
बिछी रहे कलियाँ बनकर
मिलती है तुझे बस राह”कंटीली”,
हिम्मत तू जुटा झिझक मिटा
छोड़ दे सब”तू”चल अकेली।
इतनी ही पहचान है तेरी
टूटी हो खण्डहर कोई “हवेली” ,
ढूंढे ना कोई कथा में तुझको
छोड़ दे सब”तू”चल अकेली।
ले ले सौगंध अंतर्मन से
होंगी ना तेरी आँखें “गिली”,
पीकर अपने सारे आंसू
छोड़ दे सब”तू”चल अकेली।
तू “शक्ति” है तू”सावित्री”
तू “दुर्गाबाई” और “छबिली”,
तुझसे ही इतिहास भरा है
छोड़ दे सब”तू” चल अकेली।
स्वरचित एवं मौलिक
डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा 🙏
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मुजफ्फरपुर,बिहा