दर्पण- राम किशोर पाठक

छंद – दोहा

किरणें आती जो रही, लौटाती उस ओर।
सतह परावर्तक सदा, कहलाती वह छोर।।

सतह परावर्तन करे, दर्पण उसका नाम।
वापस लौटाना सदा, होता जिसका काम।।

सतही संरचना कहे, दर्पण विविध प्रकार।
अलग-अलग गुणधर्म है, करिए भेद विचार।।

चित्र बनाऍं हू-ब-हू, बन आभासी व्योम।
लघु दीर्घ और सम सदा, दिशा कोण प्रतिलोम।।

ऑंखें सबको देखती, रहे खुद परेशान।
उसको भी दर्शन मिले, दर्पण कारण जान।।

जिसका सपाट तल रहे, दर्पण समतल जान।
दूरी समता बिम्ब से, देता है जो ज्ञान।।

उभरा जिसका सतह हो, उत्तल दर्पण नाम।
आवर्धित प्रतिबिम्ब का, निर्मित करना काम।।

सतह धॅंसा जिसका मिले, कहते अवतल लोग।
ऐसे दर्पण में बने, न्यून चित्र का योग।।

उत्तल अवतल संग में, समतल दर्पण मूल।
मिश्रित कर अनेक बने, करता यंत्र कुबूल।।

कोण आपतन है सदा, परावर्तन समान।
इस गुण के उपयोग से, बनता यंत्र विधान।।

रचयिता:- राम किशोर पाठक
प्राथमिक विद्यालय भेड़हरिया इंगलिश पालीगंज पटना।
संपर्क – 9835232978

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