पूर्ण हुए जीवन के साठ साल
मैं सेवानिवृत हो गया
जीवन से नहीं, नौकरी से
हां, मैं सेवानिवृत हो गया
समाप्त हुआ रोज सवेरे पहले उठना
भाग-भागकर वक्त पर तैयार होना
आधी रोटी और दो घूंट पानी पीकर
झटपट दफ्तर की ओर निकालना
अब न घड़ी की टिक – टिक
न दफ्तर जाने की चिंता
न हाथों में वो बैग
न फाइलों के बोझ की चिंता
मैं सेवानिवृत हो गया
हां, मैं सेवानिवृत हो गया
आज एक महीने बीत गए
जो कहते थे मिलने आऊंगा
नहीं मिल पाया तो फोन करूंगा
नहीं फोन तो दूसरे से हाल पूछूंगा
सच कहूं तो सबके वादे झूठे थे
न फोन न कोई मिलने आया
वक्त के साथ लोग बदल गए
जो मिला वो बेगानों-सा पेश आया
मैं सेवानिवृत हो गया
हां, मैं सेवानिवृत हो गया
आंखों पर चश्मा, बालों पर चांदी
रच रही कोई नई कहानी
चेहरे पर झुर्रियां, लड़खड़ाते पांव
दर्शा रही मेरी उम्र की कहानी
जिंदगी कट रही चारदीवारी के भीतर
न गैरों से ताल्लुकात
न अपनों से कोई बात
टी वी – अख़बारों से बस होती मुलाकात
मैं सेवानिवृत हो गया
हां, मैं सेवानिवृत हो गया
(स्वरचित कविता)
–Ayushi kumari
Middle School,Choabag,
Munger, Bihar
Ayushi Kumari
Bahut badhiya