कोई यहाँ मौज करे,
लाखों लूटा भोज करे,
गरीबों की जिंदगी तो,
काँटों के समान है।
कोई तो दाने-दाने को,
रहता है मोहताज,
किसी को खाने में रोज़,
पूआ पकवान है।
हजारों लोगों को यहाँ,
होते नहीं आशियाना,
धरती का बिछावन,
छत आसमान है।
बहुतों को भरपेट,
मिलती है रोटी नहीं,
अपने कर्मों का फल,
हीँ पाता इंसान है।
जैनेन्द्र प्रसाद ‘रवि’
म.वि. बख्तियारपुर, पटना
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