माता- पिता की दुलारी ,
भाई- बहनों की प्यारी।
बड़ी मेहनत से थी वो पढ़ी ,
सब गुणों से खुद को गढ़ी।
हासिल कर अपने लक्ष्य को ,
करना चाहती थी सपना साकार।
अपने व अपने माता-पिता का,
उसे बनना था जीवन आधार।।
नयी उमंगे नयी खुशियों के संग,
कर्त्तव्य पथ पर कर्म में थी लीन।
पर क्या जाने वो प्यारी बेटी,
दरिंदे लेंगे उनका जीवन छीन।।
एक दिन उसने चुपके जानी,
जानकर सबकुछ फिर वह मानी।
उसकी कर्म भूमि पर हो है दुराचार।
वह संकल्प मन में ले बैठी हमको करना है प्रतिकार।
उसने ठानी मैं करूँगी दुराचार का अंत,
उससे पहले दुराचारी ने रच डाला षडयंत्र।
एक दिन दुष्कर्मियों ने कर डाला उसपर वार,
बारी – बारी से उसे रौंदा ,वह करती रही चित्कार।।
कराहती रही,चीखी ,चिल्लाई,
पर निशाचरों को शर्म न आई।
सिसकती रही वह ,बिलखती रही,
अनुनय कर कितनी रोती रही।।
उसकी कराह पर आनंद मनाया ,
उस पापी को फिर भी शर्म न आया।
इंसानियत का हद पार कर गया ,
हैवानियत भी शर्म से तार -तार हो गया।
मन व्यथित और रूह परेशान है,
इंसान बनकर यहाँ घूमता शैतान है।
कब तलक लूटती रहेंगी बेटियाँ,
कब तलक मरती रहेंगी बेटियाँ।।
प्रश्न पूछ रही सभी से यह धरा,
न्याय करने को है आतुर ये धरा।
उठी री बहना! अब तू जागो।
समरक्षेत्र से तुम मत भागो।।
अपनी शीतलता छोड़ के अब तू,
धधकती हुई ज्वाला बन जाओ।
चूड़ियाँ तोड़ो असि धरो तुम ,
महिषासुर का अंत करो तुम ।
चंड- मुंड संहारिणी तुम हो ,
चण्डी पापनाशिनि तुम हो।
नहीं आयेंगे अब वो केशव,
तुम्हारी लाज बचाने को।
खड्ग पकड़ लो मेरी बेटियाँ
इन दैत्यों को मिटाने को।
स्वरचित:-
मनु कुमारी, प्रखंड शिक्षिका, मध्य विद्यालय सुरीगाँव
बायसी,
पूर्णियाँ, बिहार