शब्द-भेद को जानें
देववाणी सुता है हिंदी।
भारत माता की है बिंदी।।
आओ इसका रूप निहारे।
बहती जिसमें भाव हमारे।।
कुछ के सीधे अर्थ समझते।
कुछ अटपट सा समझ न पाते।।
मिलता अर्थ वह सार्थक रहे।
अर्थहीन को निरर्थक कहे।।
दोनों कुछ तो भाव जगाते।
बोली में हैं बोले जाते।।
भाषा सार्थक को हीं माने।
नहीं निरर्थक को पहचाने।।
तत्सम है संस्कृत के जैसा।
अग्नि, धर्म आदि है वैसा।।
रूप बदल संस्कृत की आयी।
आग, धरम तद्भव कहलायी।।
जूता, लोटा, कटरा, खिरकी।
सीमा के अंदर भारत की।।
जो जन्मी देशज कहलायी।
बोलचाल में सबको भायी।।
मुफ्त, कार, औरत, आवारा।
शब्द विदेशी बना हमारा।।
रची बसी सबका मन भायी।
वही विदेशज है कहलायी।।
लिंग, वचन, कारक के चलते।
कुछ शब्दों के रूप बदलते।।
रूप बदलता वही विकारी।
नाम बताती संज्ञा सारी।।
संज्ञा के बदले जो आए।
सर्वनाम उसको कह पाए।।
गुण-अवगुण जो धर्म बताए।
वह शब्द विशेषण कहलाए।।
काम बोध है क्रिया कराती।
यही विकारी है कहलाती।।
लिंग, वचन, कारक के रहते ।
कुछ सर्वत्र समरूप मिलते।।
रूप शेष का बदल न पाए।
अविकारी सारा कहलाए।।
टुकड़े जिसके अर्थ न देते।
कान, पकड़, रूढ़ की लेते।।
दो सार्थक शब्दों का जुड़ना।
यौगिक रूप सभी को पढ़ना।।
जुड़कर जो अर्थ बदल देता।
वही रूप योगरूढ़ लेता।।
हिंदी सबसे मिलकर रहती।
सज-धजकर भावों को कहती।।
ममता, करुणा भाव जगाए।
मातृभाषा तभी कहलाए।।
रचयिता:- राम किशोर पाठक
प्राथमिक विद्यालय भेड़हरिया इंगलिश, पालीगंज, पटना, बिहार।
संपर्क – 9835232978
