मैं भी शान से जीना चाहता हूं मेहनत की रोटी कमाता हूं,
दृढ़ शौक है मेरे भी कुछ, बच्चों को खूब पढ़ाना चाहता हूं,
लेकिन कभी अप्रवासी बनकर बिलकुल बेगाने से रहता हूं,
कभी इस डाल तो कभी उस डाल खुद को डोलते पाता हूं।
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वक्त जब भी करवट लेता है तब रोम-रोम सिहरने लगता हूं,
कभी वक्त मरहम पट्टी भी लगवाती तार-तार रोने लगता हूं,
अपनी किस्मत में है खून पसीने की कमाई यही दिखाता हूं,
उद्योग-धंधों सड़क,पुल,बांध की हमेशा पहचान बनाता हूं।
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व्यवस्था मालिकों ने हमेशा से किया है मेरा पूरा दोहन,
मिल कारखाने मालिकों ने भी किया है मेरा पूरा शोषण,
फिर कैसे अपने शौक और अरमान पूरे कर सकता हूं,
अपने बच्चों के भविष्य को अच्छे से संवारना चाहता हूं।
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अपनी व्यथा लोगों तक भी हरदम पहुंचाना चाहता हूं,
है शौक मेरे अरमान बड़े ऊंची उड़ान भरना चाहता हूं,
मत समझो हमें सिर्फ मजदूर, कहो की देश के प्राण हैं,
नींव, पुनर्निर्माण और प्रगति के आन-वान और शान हैं।
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मेरी पीड़ा है कुछ ऐसी की सबको समझना है जरूरी,
घर-परिवार के भरण-पोषण की डगमगाती कहानी है,
माथे पर पसीने,हाथ की हथेली और पैर की नस-नस में,
कल-कारखानों के सींचने की मेरे काम की निशानी है।
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उजाले भरी नजरों की भा़ंति, थोड़ा मिले ऐसा सम्मान,
चाहता हूं औरों की तरह मुझे भी हो एक मुट्ठी आसमान,
मेरे बगैर उद्योग-धंधे और विकास की कहानी है बेमानी,
लोग समझते नहीं मेरे अंदर की वेचैन व्यथित परेशानी।
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में भी शान से जीना चाहता हूं मेहनत की रोटी कमाता हूं,
दृढ़ शौक है़ मेरे भी कुछ, बच्चों को खूब पढ़ाना चाहता हूं,
लेकिन कभी अप्रवासी बनकर बिलकुल बेगाने से रहता हूं,
कभी इस डाल तो कभी उस डाल खुद को डोलते पाता हूं।
✍️सुरेश कुमार गौरव,शिक्षक,उ.म.वि.रसलपुर,फतुहा,पटना (बिहार)
स्वरचित और मौलिक
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