स्वाधीन- शिल्पी

देश मेरा जागृत है अधिप,

अंतःकरण

सुषुप्त अवस्था में है केवल,

कई-कई बार

जन्मा है यह

वात्याचक्र के शिविर से निकल कर।

जन्मी हैं इसमें

कई-कई सभ्यताएँ,

उदीयमान हैं जो

सृष्टि के इस धवल मुख पर।

बीजपत्र से ज्यों निकला हो

स्वर्ण अंकुर

कटभी‌ के अंश मात्र-सा,

सुगंधित

अतीत एवम् वर्तमान के

चरायंध अवरोध में।

कर चुका है यह

समय पूर्व देहावसान उनका

निमित्त बनें हैं जिसके,

क्षीणवपु सियासतदां

ज्यों वाहिब वसुधा को सौंपता हो ताम्रयुग।

शिल्पी
मध्य वि. सैनो जगदीशपुर, भागलपुर

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