प्रकाश पर्व-कुमारी निरुपमा

Nirupama

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प्रकाश पर्व

                प्रकाश पर्व हमसबों ने काफी उल्लास से मनाया। किसी ने दीप तो किसी ने कैंडल जलाया। रंग बिरंगे झालरों एवं दुधिया बल्ब से सजे अट्टालिकाओं का तो क्या कहना। अमीर-गरीब सभी ने घरों को अपने-अपने स्तर से प्रकाशित किया। कहा जाता है कि रोशनी करने से अंतर का तमस नहीं मिटता है। क्या बुराई पर अच्छाई की जीत की खुशी मिलती है? क्या दीपोत्सव हमारे कलुषता को मिटा पाएगा?
वास्तव में प्रकाश एक प्रतीक है अच्छाई का। प्रकाश की जगमगाहट में हम धीरे-धीरे अंधेरे अर्थात बुराइयों से अपने को दूर करने के लिए अग्रसर होते हैं। खिल्ली बताशा और मुरही की संस्कृति से अटूट संबंध है। कुल्हिया चुकिया को भरना हमें यह बतलाता है कि संतोष पूर्वक जितना है उतना में ही भरा-पूरा समझना चाहिए। मनुष्य अत्यधिक की चाह में गलत रास्ते पर जाता है। सही रास्ता पर तभी तक बना रहता है जब तक आत्मतुष्टि का भाव रहता है। प्रकाश पर्व हमें राम के जैसा दृढ़प्रतिज्ञ एवं निष्ठावान होना बताता है। राम का निःस्वार्थ भाव से राजगद्दी का त्याग और वन गमन भारतीय संस्कृति की एक विलक्षण आदर्श है जिसे भारतीय जनमानस ने अपने परम्परा में आत्मसात किया है। उसमे वर्णित हर उद्गार हमारे पर्व त्यौहार एवं धार्मिक आस्था के रूप में प्रकट होता है। प्रकाश पर्व उन्हीं आस्थाओं का प्रतीक है।हम सभी दीपावली के दिन घी के दीप जलाते हैं और गणेश जी का आह्वान करते हैं। श्री राम के आगमन की खुशी यह दर्शाता है कि बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। यही कलुषता को मिटाता है।

कुमारी निरुपमा

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