विदाई की बेला-सुरेश कुमार गौरव

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काल चक्र के समय काल को, विदा करने की भी ठानी गई
चंद सेकेंड,मिनट, घंटे,पहर को, सबके द्वारा मानी भी गई।

विदाई तो बहुतों की हुई, तब मन और आंसू बार-बार छलके
कभी बहनों की डोली, तो कभी अंतिम यात्रा में भींगी पलकें।

कुछ जल्दी बिछुड़े, कुछ बारी-बारी छोड़ते और रुलाते गए
जीवन का मतलब तो आना और जाना है, यह सीखाते गए।

कुछ को आपदाओं ने भी लीला, देखे उन भयाभय पलों को
कफन में लिपटे अपने देखना भी, नसीब नहीं हुआ किसी को।

कुछ पुरानी यादें साथ छोड़ चले, उनकी यादें दिलों में रह गई
कुछ जुड़ते भी गए, वक्त के साथ हसरतों की दुनियां बस गई।

कुछ नाराज और खफा भी हुए, कुछ ने गहरे जख्म भी दिए
हुई गलतियां कई बार वक्त ने ही सीखाया, नए नज्म भी दिए।

मेरे बचपन की गलियां,यारियां और दूरियां भी न भूली गई
पर खोते गए मां-बाप,रिश्ते-नातों को, निशानियां चली गई।

कुछ नाराज और खुश भी हैं, पर कुछ तो बहुत परेशां भी हैं
अनुभव ने कहा- हर एक खुद में और दिल से शहंशा भी हैं।

कहता है कवि हृदय छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी
दिल से दिलों को जोड़ो मिलकर लिखेंगे, ईक नई की कहानी।

“विदाई” की बेला किसी को हंसाती, तो किसी को रुलाती है
जीना इसी का नाम है, यह तो हर शय में है,सबको बताती है।

मानें तो हर दिन नया साल है, फिर भी देते सबको दुआएं हैं
मन,कर्म और वचनों से आशान्वित हो, करनी सब सेवाएं हैं।

_सुरेश कुमार गौरव,
शिक्षक,उ.म.वि.रसलपुर,फतुहा,पटना (बिहार)
स्वरचित और मौलिक
@सर्वाधिकार सुरक्षि

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