देखो खो रहा बचपन- स्वाति सौरभ

 

देखो खो रहा बचपन

 

हो गई हैं गालियां वीरान,

ना करते अब बच्चे परेशान,

ना टूटते अब घरों के शीशे,

ना डंडा ले दादा दौड़ते पीछे,

चार दीवारों के अंदर बंद,

देखो खो रहा  बचपन ।

झुका दिए पेड़ों ने डाली,

मगर झूले अभी भी खाली,

उदास लटके हैं आम्र-टिकोर,

कहां फेंकता कंकड़ कोई उनकी ओर?

उदास हो गए वन उपवन,

देखो खो रहा बचपन।

ना फूलों को कोई देता तोड़,

ना बागों में अब होता  शोर,

ना भाग रही तितलियां डर कर,

कहां बांधता कोई उन्हें पकड़कर?

अब माली भी ना रहता चौकन्न,

देखो खो रहा बचपन।

ना मंडराते बादल घुमड़- घुमड़ कर,

ना इठलाती बिजली चमक -चमक कर,

ना कागज की कश्ती तैरती अब,

ना बारिश में होती  छम- छम,

अब इन्हें देख खुश होता कौन?

देखो खो रहा है बचपन।

लग गए विद्यालय में ताले,

श्यामपट काले के काले,

ना होती अब मीठी गपशप,

ना स्कूलों में होती  हलचल,

अब दीवारों को भी रंगता कौन?

देखो खो रहा बचपन।

अब ना चांद करतब दिखलाता,

ना इन्द्रधनुष अब रंग फैलाता,

ना बादल बदलते रूप,

ना थकाती सूरज की धूप,

अब तारों को गिनता कौन?

देखो खो रहा बचपन।

स्वाति सौरभ

स्वरचित एवं मौलिक

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