अंगड़ाई-धर्मेन्द्र कुमार ठाकुर

Dharmendra

अंगड़ाई

दो हजार बीस ने हमें बहुत सताया
बाजार, विद्यालय, परिवहन, और प्रतिष्ठान
सबके सब बंद करवाया घर में छुट्टी खूब बिताया।

अब बहुत हुआ छुट्टी-छुट्टी का खेल,

आओ लौट चलें विद्यालय की ओर 

महीनों बाद फिर आई तरुणाई ,
मौसम ने ली फिर से अंगड़ाई।
नई उमंग, नया तराना, नहीं चलेगा कोई बहाना
नया बसंत है, नया विहान, नई उत्त्साह के साथ चलो।
आओ विद्यालय लौट चलो,
नई मिलेगी सिख हमें, नया नया पाठ मिलेगा,
अंडा, फल और भोजन मिलेगा।
मन, मुखड़ा और हृदय खिलेगा।

 

गॉंव-शहर

शहर तो बहुत देखा गॉंव की बात निराली,
शहर में कचरा भरा है गॉंव में है हरियाली।
शहर में प्रदुषण की छाया,

गॉंव में नहीं चलती इसकी माया। 
शहर भले हीं सघन है

पर अपने में मगन है। 
गाँव भले हीं विरल है

पर सबमें अपनापन है।
शहर में भागा-दौड़ी

खोजते फिरे कौड़ी-कौड़ी।
गावँ में है भाई चारा

बहते हैं संस्कार की धारा।
शहर में नहीं है अपने-अपनों की पहचान, 
गाँव में है जाने-अनजानों को सम्मान।
शहर में हर एक सांस की लगती है कीमत,
गाँव में हर एक की अच्छी है नियत।
शहर के कुछ चीज में मिलावट की बौछार, 
गावँ के हर चीज में है शुद्धता की भरमार।

माना कि शहर में शिक्षा के हैं सु-अवसर
पर गॉंव में संस्कारों की कमी नहीं।

धर्मेन्द्र कुमार ठाकुर
न. सृ. प्रा. वि. नेमानी टोला बेलसरा गोठ
रानीगंज अररिया

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