अनमोल व अदृश्य मित्र
निराशा से मन भरा हुआ था
आशा कहीं न दिखती थी
सामने होते स्वादिष्ट व्यंजन
पर न कोई जॅंचती थी।
कारण था मुॅंह की बीमारी
वर्षों से थी मुझपर भारी
सबसे बड़ी जो थी लाचारी
नाम था असाध्य बीमारी।
सहता था इसके कष्टों को
पैसों के अभाव में
क्या करे एक गरीब बेचारा
इस कष्टों के बचाव में।
लेकिन कुछ अनमोल मित्र ने
बार-बार उत्साहित की
बोले आशा को मन में लाएं
अनेक बार हिम्मत भी दी।
निकल पड़ा रोगों से लड़ने
पैसों की न चिंता की
छोड़ा सब मित्रों के ऊपर
मन में भरी जो आशा थी।
पारस जैसा अस्पताल जो
सब बीमारी दूर करे
वहीं ईलाज शुरू हो गया
सब आगे आए मदद को।
पूरी बीमारी मुॅंह से निकली
पहले जैसा हो जाऊॅंगा
ऐसे मित्र जो आगे आए
उऋण न हो पाऊॅंगा।
सदा खुश रहे साथी गण
खुशियों से झोली भरे सदा
सुखमय जीवन हमेशा पाए
उनपर न आए कोई विपदा।
विजय सिंह नीलकण्ठ
सदस्य टीओबी टीम
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