कोरोना कविता और कवि
लिख रहा हूं
कविता,
झांकता है कोरोना
ठीक सामने की
खिड़की से…
अट्टहास करता है वो
परिहास के स्वर हैं उसके
कवि!
भोले कवि
तुम्हारी कविता से
भला क्या होना है
यह तो बस नियति है
और कोरोना है…!
बस, बस…
बहुत हो गया यह सब
बंद करो यह प्रलाप
मेरी कविता
चिल्ला उठती है
वह उन्मुक्त हो उठी है
वह कवि के नियंत्रण में
नहीं है…
प्रदीप्त कविता
इसकी आंखें टेस लाल हैं
कभी नहीं देखा इसे
इस रूप में
और कोरोना…
कोरोना तुझे
हारना ही पड़ेगा
इस युद्ध भूमि में
जीत का वरण
हमेशा से मानवता ने ही
किया है यहां
हम, हम हौसले से
करेंगे तुम्हारा सामना
हमारी कविता
देती रहेगी
सामर्थ्य हमें
इसकी बौद्धिकता से
ऊंची नहीं है
तुम्हारी कुरुपतायें…
…अब भी, अब भी
झाँक रहा है कोरोना
ठीक मेरे सामने की
खिड़की से
टटोलता है जैसे
मेरी कविता को,
मुझे,
और पूरी
मानवता को…!
गिरिधर कुमार