एक बेटी के मन की व्यथा-सुरेश कुमार गौरव

Suresh kumar

Suresh kumar

एक बेटी के मन की व्यथा

हे समाज के कर्णधार! सदियों से मुझे पढ़ने की मनाही है
लिंगभेद और भेदभाव की यह तो सदियों पुरानी कहानी है
मैं भी पढ़ना चाहती हूं जीवन को खुद भी संवारना चाहती हूं
अपने स्वप्निल उड़ान को अवश्य पूरा कर दिखलाना चाहती हूं।

मुझमें कुछ करने की लगन है जीवन में आगे बढ़ना चाहती हूं
मुझे आत्मनिर्भर है बनना आशा के पंख लगा उड़ना चाहती हूं
मुझे अपना जीवन खुद है गढ़ना इसलिए मैं भी पढ़ना चाहती हूं
भेदभाव से मुझे है लड़ना जीवन गढ़ना चाहती हूं।

नियम कानून क्या है पढ़ लिख इसे परखना-समझना चाहती हूं
कर्मवती बन नए युग के निर्माण में भागीदार बनना चाहती हूं
संसार की रचना हूं भेदभाव की जंजीरों से मुक्त होना चाहती हूं
लोपामुद्रा, साबित्रीबाई, लक्ष्मीबाई व इंदिरा सी बनना चाहती हूं।

अब नहीं है अनपढ़ का जमाना इसलिए मैं भी पढ़ना चाहती हूं
देश और दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहती हूं
मैं आधी दुनिया से हूं समाज की मुख्यधारा से जुड़ना चाहती हूं
हे भारत के कर्णधार! करती हूं विनती बारंबार पढ़ना चाहती हूं।

घर की दहलीज से निकल दुनियां को कुछ बतलाना चाहती हूं
है मेरा यह प्रणय निवेदन, मैं भी संग- संग आगे बढ़ना चाहती हूं
प्रकृति के नियम सबके लिए हैं बराबर सबको कहना चाहती हूं
फिर भेदभाव क्यों मैं शिक्षा से मरहूम क्यों यह जानना चाहती हूं।

देश-राष्ट्र निर्माण में पढ़ लिखकर देश सेवा भी करना चाहती हूं।

हे समाज के कर्णधार! सदियों से मुझे पढ़ने की मनाही है
लिंगभेद और भेद-भाव की यह तो सदियों पुरानी कहानी है
मैं भी पढ़ना चाहती हूं जीवन को खुद भी संवारना चाहती हूं
अपने स्वप्निल उड़ान को अवश्य पूरा कर दिखलाना चाहती हूं।

✍️सुरेश कुमार गौरव

पटना (बिहार)
स्वरचित मौलिक रचना
@सर्वाधिकार सुरक्षित

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