हंस किसका
बड़ी सुहानी सुबह थी उस दिन,
खिले हुए थे फूल वहां।
शीतल मन्द पवन थी बहती,
थे घूम रहे सिद्धार्थ जहां।
तभी एक हंस रोता चीखता,
गिरा सामने में आकर।
फौरन आगे बढ़कर उन्होंने,
उठाया उसे तुरंत जाकर।
देखा तो एक तीर लगा था,
उसके छोटे से तन में।
उनका हृदय विदीर्ण हो गया,
पीड़ा हुई अन्तर्मन में।
तीर निकाल के, पट्टी बांध के,
पिलाया जल उसको थोड़ा।
तभी चचेरा भाई देवदत्त,
आया वहां तुरंत दौड़ा।
कहने लगा हंस है मेरा,
मैंने मारा है इसको।
है शिकार ये मेरा अब तो,
चाहे पूछ लो तुम सबको।
सिद्धार्थ ने कहा, नहीं दूंगा मै,
हंस मेरा है ये अब तो।
लेकिन वह निर्दयी अड़ गया,
हंस दुबारा छीनने को।
अंत में दोनों लड़ते झगड़ते,
पहुंचे शीघ्र राजा के पास।
दोनों ने सब बात बताई,
लिए हंस पाने की आस।
सुन के राजा ने दिया फैसला,
नैतिकता है सिद्धार्थ के साथ।
मारने वाले से लम्बा,
हरदम होता रक्षक का हाथ।
इसीलिए ये हंस आज से,
रहेगा अब सिद्धार्थ के पास,
जाओ घर तुम अपने देवदत्त,
छोड़ो हंस पाने की आस।
फैसला पा सिद्धार्थ खुश हुआ,
ले गया उसको अपने घर।
उसको अपने साथ था रखता,
और खुश होता था रखकर।
सुधीर कुमार
किशनगंज