जीवन और जल
कहते भी हैं, जल ही जीवन है,
जीवन वही, जैसा तन-मन है,
जीवन मानो तो ईश्वर का वर है,
है यह जल के सदृश, चर-अचर है,
तुम इसे जैसी आकृति देना चाहो, दे दो,
तुम इसे जैसा भी बनाना चाहो, बना लो,
कल्पना से, कर्म से, उद्योग से, दृढनिश्चयी प्रयास से,
योग, ज्ञान, श्रेष्ठ अनुभव, विचार से, सतत अभ्यास से,
जीवन को तो बहती नदी-सा ही होना चाहिए,
इसे सतत, निर्विघ्न आगे बढ़ना चाहिए,
मार्ग में कोई ईति भी कभी आ जाय,
उसे हटाकर या और मार्ग बनाकर,
लक्ष्य की ओर निरंतर बढ़े जाना चाहिए।
…..गिरीन्द्र मोहन झा
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