(मानवता के आईने में झाँकती एक कविता)
क्या तुमने कभी देखा है…
बेबस, लाचार हर उस औरत को
जो ढो रही है अपनी जिम्मेदारियों को
अपने सामर्थ्य की अनंत सीमा से परे जाकर।
क्या तुमने देखा है उस मजबूर बाप को,
जिसे गत हफ्ते चिकित्सक ने कहा था —
अब न ढोना, न खींचना भारी बोझ।
फिर भी कोई तो मजबूरी होगी न जीवन में,
जो खींच रहा है अपने जीवन को
कमर पर बँधी मुफ्त मिली सरकारी बेल्ट के सहारे।
क्या तुमने देखा है उस औरत को,
जो घर-गृहस्थी के खातिर
अपने मुन्ना पर समय न देकर
तुम्हारे “राजा बेटे” पर
मुक्तहस्त से लुटा रही है अपना स्नेह।
क्या तुमने देखा है उस मेमने को,
जिसकी माँ के चिकार के हाथ कटते ही,
वह अब भी उसकी गर्दन को
चूम रही है बेमन, बेआवाज़ सी।
क्या तुमने देखा है उस किशोर को,
जो चौदह पार करते ही
घर की अथाह मजबूरियों को ढोने निकला है,
अनजान सफ़र की रेलगाड़ी में —
न उसे कल का पता, न आज का ठिकाना।
मुझे माफ़ करना मेरे दोस्त,
अगर तुम्हें ये दृश्य कभी नहीं दिखे,
तो मुझे तुम्हारे “मनुष्य” होने पर
थोड़ा-सा संदेह ज़रूर है।
लेखन व स्वर :-
अवनीश कुमार
व्याख्याता
बिहार शिक्षा सेवा
(शोध व अध्यापन उप संवर्ग)
