कभी आओ जो फुर्सत में,
तो कुछ बातें कर लें,
जो ठहर गई है ज़िंदगी,
उसका भी हिसाब कर लें।
शाम से सुबह तक जागती हैं ये आँखें,
इंतज़ार की सलवटों में डूबी,
कितने सवालों से भरी हुई—
जरा उनके जवाब भी सुन लें।
खुद से भाग भी जाऊँ कितना,
पर सफ़र में तनहाई संग चलती है,
एक न एक जगह तो रुक कर,
उस पर ऐतबार भी कर लें।
सोचता हूँ—
क्या बाकी है, क्या रह गया शेष?
सुबह के इंतजार में
कितने सपने अब भी अधूरे हैं।
उस सुबह की प्रतीक्षा में,
तुम दिवास्वप्न-से हो—
कब याद धुंधली पड़ जाए,
कब आँखों से ओझल हो जाओ,
कुछ पता नहीं।
हर रोज़ इन संवेदनाओं से जूझता हूँ,
और एक कविता लिखकर
अपने दर्द को बयान करता हूँ।
प्रस्तुति – अवधेश कुमार
उत्क्रमित उच्च माध्यमिक विद्यालय रसुआर , मरौना , सुपौल
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