प्रकृति
प्रकृति की प्रवृत्ति
आदिकाल से ही
निश्छल सहज
और सौम्य रही है
करती रही है चिरकाल से
सबकी तृष्णाओं को तृप्त
प्रवाहित होती रही है सदा
स्थूल जगत में
जीवन सरिता बनकर
लेकिन
बाँधने से कभी नहीं बँधी वह
वक्त और हालात के साथ
वह तोड़ देती है सारे बाँध
और ले आती है भयावह बाढ़
अपने अंतस में
कई पीर छिपाए प्रकृति
आज अश्कों से भरी पड़ी है
पर टूटती नहीं उन जख्मों से
उनमें भी होता है उदगार
तभी तो बन ज्वालामुखी
अनहद ममतामई धरा
आज देखो फूट पड़ी है
संवारती रही सदा हमें
माँ सम प्यार कर
पर भूल होती है अगर
देती दंड हद पार कर
शक्ति और दुर्गा बन
हर कदम साथ खड़ी है
निश्चित ही प्रकृति की प्रवृति
माँ से भी बड़ी है
पर आज मौनवश कुपित
आत्मसम्मान को ढूंढ़ती खड़ी है
अपने अस्तित्व की तलाश में
कभी संरक्षिका बन
कभी संहारिका बन।
अर्चना गुप्ता
म. वि. कुआड़ी
अररिया, बिहार