सम्राट अशोक का मोह भंग
अस्ताचल को गया था दिवाकर ;
था विराजमान नभ में निशाकर ।
झिलमिला रहे थे सितारे ;
दीपों की लगी थी कतारें ।
फहरा रही थी मगध-ध्वजा ;
सम्राट-शिविर था सजा-धजा ।
सैनिक थे अपने शिविर में ;
मानो शेर हों अपने विविर में ।
सोच में थे सम्राट व्यथित ;
चार साल हो गए व्यतीत ।
कलिंग पर न हो सकी विजय;
क्या कलिंग है सचमुच दुर्जय ?
सहस्र सैनिकों ने दी है क़ुर्बानी ,
फिर भी अधूरी विजय-कहानी ।
तभी गुप्तचर ने लाया संदेश ;
स्वर्ग सिधार गए कलिंग नरेश ।
भाँपकर अपनी विजय आसन्न
हो गए सम्राट अतीव प्रसन्न ।
सकुचाकर बोला वह राज़दार ;
अब भी बंद है दुर्ग का द्वार ।
बंद द्वार का समझें आशय
बरकरार है अब भी संशय ।
सम्राट हो गए अति उद्वेलित ,
पर न हुए संकल्प से विचलित ।
कल या तो खुलेगा दुर्ग-द्वार
या लौटेंगे हम मानकर हार ।
प्रदर्शन करूँगा अपने शौर्य का ;
आखिर पौत्र हूँ चन्द्रगुप्त मौर्य का
पुनि सेना रण-क्षेत्र में आई ;
सम्राट ने प्रतिज्ञा दुहराई ।
जब सम्राट ने दिखाई हनक ,
ध्वनित हुई खड्गों की खनक ।
दुर्ग के अंदर पड़ गई भनक ;
चढ़ गई क़ुर्बानी की सनक ।
फिर खुल गया दुर्ग का द्वार ;
दिखी एक रमणी अश्व-सवार ।
चेहरे से टपकता था ओज ;
पीछे थी स्त्रियों की फ़ौज ।
सेना को ललकारकर बोली ;
आज खेलनी है खून की होली ।
जन्मभूमि: स्वर्गादपि गरीयसी;
आओ बहनो! उठा लो असि ।
बोले सम्राट अशोक अकस्मात् ;
प्रकट हुई है जगदम्बा साक्षात् ।
आई है करने कलिंग की रक्षा ,
जिसकी नहीं थी हमें अपेक्षा।
स्तब्ध सम्राट ने तोड़ा मौन :
पूछा उन्होंने, आप हैं कौन ?
मैं हूँ राजकुमारी पद्मा ;
अशोक ने दिया है सदमा ।
हत्यारों का है वह सरदार ;
आई हूँ मैं करने ख़बरदार ।
किया है धरा को रक्त-रंजित;
देखो मेरे हैं नयन अनुरंजित ।
हम आए देने प्राणों की आहुति;
होगी आज युद्ध की पूर्णाहुति ।
कलिंग-विजय नहीं आसान ;
हम करेंगे युद्ध घमासान ।
कहाँ छुपा है हत्यारा अशोक ,
जिसने दिया है पितृ-शोक ?
मैं ही हूँ आपका अपराधी,
जिसके हाथों मरे निरपराधी ।
मैं न करूंगा स्त्रियों पर वार ;
फेंकता हूँ मैं अपनी तलवार ।
मेरे सैनिक भी न करेंगें प्रहार ;
नहीं होगा अब नरसंहार ।
नारियों पर न उठेगा शस्त्रास्त्र ;
आज्ञा नहीं देता है शास्त्र ।
तूने की है शास्त्र की अवज्ञा ;
क्या देता शास्त्र हत्या की आज्ञा ?
लूंगी पितृवध का प्रतिशोध ;
जितना चाहो करो प्रतिरोध ।
तेरे रक्त से करूँगी स्नान ,
बनेगा युद्ध-क्षेत्र श्मशान ।
आपके समक्ष हूँ नतमस्तक;
छिन्न कर दें मेरा मस्तक ।
कर लिया है मैंने अनुभव;
विजय-तृष्णा का अंत पराभव ।
हो गया है मेरा मोह-भंग ;
फिर कभी न लड़ूंगा जंग ।
मैं न करती निहत्थे पर वार
चाहे हो वह मेरा कसूरवार ।
तो ठीक है जाइए महाराज ;
करती हूँ माफ़ आपको आज ।
निभा सकें आप अपनी प्रतिज्ञा ;
दें परमेश्वर आपको सत् प्रज्ञा ।
गए सम्राट बुद्ध की शरण में ;
बसाया अहिंसा अंतःकरण में ।
दिलीप कुमार चौधरी
मध्य विद्यालय रजोखर
अररिया