शब्दों का संसार (१६-१४)
शब्दों का संसार अनोखा, होंठ चूमता है रहता।
कुछ बसते हैं संग रगो में, कुछ को खंजर सा सहता।।
प्रेम पाश में बँध जाते भी, जब यह आलिंगन करता।
प्यारा लगता छूना इसका, नैनों में रस है भरता।।
कोमल-कोमल कलियों सी यह, मनहर बन जब आती है।
नैनों में फिर जाने कुछ क्यों, बरबस ही आ जाती है।।
शीतल सर्द हवाओं सी जब, कानों को छू जाती है।
हृदयस्पर्शी राग कभी जब, अंतस तक पहुँचाती है।।
प्रीतम की मनुहार यही है, समरस भाव जगाती हैं।
पायल की झंकार यही है, रोम-रोम खिल जाती है।।
शर्म हया जब लेकर आती, घुंघट में रह जाती है।
चढ़ता जब परवान प्रेम का, अंदर ही रह जाती है।।
शब्द कभी निःशब्द बनाकर, भावों में इठलाती है।
घने तिमिर में भी यह आकर, हल्के से सहलाती है।।
तन-मन झंकृत हो जाता है, ऐसी नेह जगाती हैं।
खो जाता है सुध-बुध अपना, जब वह गले लगाती है।।
रचयिता:- राम किशोर पाठक
प्रधान शिक्षक
प्राथमिक विद्यालय कालीगंज उत्तर टोला, बिहटा, पटना, बिहार।
संपर्क – 983523298
