विधा:-विधाता छंद।
व्यंग।
(विवशता में सिसकते हैं )
चुनावों के समय पर ही,
प्रजा की याद आती है।
करे वादें सभाओं में,
प्रजा सुनकर लुभाती है।
बिछाया जाल शब्दों का,
ललक जो खींच लाती है।
प्रगति की बात करते हैं,
प्रजा को यूँ झुकाती है।
(2)
भिखारी बन कहे नेता,
मुझे ही वोट तुम देना।
जगी है आस तुम से ही,
खुशी का अंश तुम लेना।
खुले बक्सा हुई गिनती,
लगे नारे कई हारे।
लगाओ जीत का कुमकुम,
खुशी पसरा यहाँ प्यारे।
(3)
कनक -सा रूप पाकर वह,
तिमिर में भी चमकते हैं ।
हुकूमत पा कई नायक,
हवा का रुख बदलते हैं ।
यतीमों को मिले वैभव,
कदम उसके बहकते हैं।
दिये वो शूल जनता को,
विवशता में सिसकते हैं।
एस.के.पूनम।
सेवा निवृत शिक्षक,
फुलवारी शरीफ, पटना।
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