अधूरा सफर
आंँखो में नमी, होठों पे सिसक,
दे गए तुम कहांँ खो गए?
निकले घर से जो मंजिल के लिए,
रास्ते में ही क्यों सो गए?
हृदय व्याकुल, पथराई सी आंँखे,
असहनीय दर्द से विचलित है।
निकले जो सफर में मंजिल के लिए
क्यों राहों में ही खो गए ?
किसी की माता,किसी की बहना,
किसी की भार्या रोई है।
जिसे देख पुलकित होते थे,
वह हँसी न जाने कहां खोई है।
न जाने कितनो का घर-आंँगन,
बसने से पहले उजड़ गया,
देख धरा पे बिछी हैं लाशें,
पत्थर का दिल भी पिघल गया।
अब न लौटेंगे अपने घर,
मृत्यु की गोद में सो गए।
हो गए विलीन जो पंचतत्व में,
वह वासी स्वर्ग के हो गए।
बिंदु अग्रवाल शिक्षिका
मध्य विद्यालय गलगलिया
किशनगंज बिहार
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