जब बालपन और बालमन था
तब गुरुओं ने ही ज्ञान पिपासा से जोड़ा
भविष्य के मुहाने पर ला
सुपथ पर चलने का मार्ग प्रशस्त किया।
क्षमा करें वैसे गुरुवर शील क्या उदंडता
प्रज्ञा क्या अल्पज्ञता और एकांगी
ज्ञान को सुसंस्कार देने से बाज आ रहे
अपनी डफ़ली अपना राग अलाप रहे
स्वार्थ के रास्ते पर भी चल रहे
पता नहीं यह कैसा मत और मतांतर है!
गुरु और शिष्य बन गए आज शिक्षक-छात्र
जबकि दोनों हैं एक दुसरे के पर्याय
पर आज दोनों कहां हैं खड़े?
किए थे द्रोणाचार्य ने भी गलत
एकलव्य का अंगूठा मांगकर
आज इन दो अनूठे संज्ञा नामों की
करनी और कथनी में आ गए कुछ अंतर हैं।
हे गुरुओं! लौटें अपनी पहचान की ओर
आप तो हैं सदा विद्वता के असली वाहक।
और प्रिय छात्र! आप बन जाएं वहीं शिष्य
जिसने सदैव गुरुओं का मान है बढ़ाया।
आप की परिभाषा क्यू़ गई है बदल?
आएं लौट चलें वहीं गुरुकुल के दौर में
जहां गुरु-शिष्यों की बातें ब्रह्ममंडल में
भी बोली और सुनी जाती थीं।
आप हैं स्नेहयुक्त,अनुशासन,चरित्र और
कल-कल बहती सरस सलिल के परिचायक।
सुरेश कुमार गौरव,शिक्षक,उ.म.वि.रसलपुर,फतुहा,पटना
(बिहार)
स्वरचित और मौलिक
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