जीवन तो समंदर की लहरों में रहता था,
और मैं कश्ती लिए किनारे किनारे बहता था।
बस सुनता था कही मीन है तो कही सर्प भी,
पर अपनी आँखों से कुछ भी नही देखा था।
गुरु बिना कोई एक निशाना भी कैसे भेद सके,
बिना नेत्र के चाहे भी तो मंजर कैसे देख सके
आँखों पर पट्टी थी, जैसे अंधकार की दुनिया थी,
पर गुरु आपके पास तो कोई चमत्कार की पुड़िया थी।
चमत्कारी हो, मायावी हो कोई महाज्ञानी इंसान भी हो,
निर्जीव को सजीव बना दे, आप ऐसे भगवान भी हो।
जो भीतर का रूप दिखाए आपने ऐसा दर्पण दिया,
मुझको ज्ञान नही दिया केवल, एक नया जीवन दिया
आत्मविश्वास ऐसा भरा आपने की, देखने वाला सोचेगा
कोई पर्वत भी नीचे आ जाए तो कितनी देर रास्ता रोकेगा
हर बाधा को हर दुविधा को मैने ऐसे पार किया,
जैसे हर मुश्किल ने खुद हल होने का उपचार दिया
और रिश्ते तो कितने गिनवाऊँ, आपने जो निभाया है,
की संगी साथी को छोड़ो माँ बाप को भी भुलाया है
अक्सर प्यार से तो कभी गुस्से से समझाया है।
अब उसी राह पर चलना है, जो राह आपने दिखाया है
बहुत वक्त लगाया आपको ये गीत समर्पित करने में,
पर वक्त तो लगना ही था उतना फ़न अर्जित करने में
मैं एहसान भुला जाऊँ ऐसा कोई क्षण नही,
या एहसान जता पाऊँ इतना भी सक्षम नहीं।
पर अंँगूठा क्या पूरा शरीर त्याग कर दूँगा,
गुरु माना है हम आपको, मैं एकलव्य से कम नहीं।
स्वरचित:- अभिनव कुमार
प्रखंड शिक्षक, रोसरा, समस्तीपुर