करना है, करते ही जाना है,
बढ़ना है, बढ़ते ही जाना है,
जब है सूर्य का तुममें वास,
कोई अंधेरा क्या बिगाड़ेगा,
उर में हो जोश का आकाश,
शत्रु भी तेरा क्या कर पाएगा ?
राहों में जब ठोकर लगते,
वे बहुत कुछ सिखलाते हैं,
परिस्थितियों के साये में,
मंजिल भी बदल जाते हैं,
पर जीवन का यह गुण है,
वह कभी नहीं रुकता है,
हर मोड़ पर राहें फूटती हैं,
कुछ नया मिलता जाता है,
वृक्ष कभी छाया देती,
मार्तण्ड देते हैं प्रकाश,
धरती का बिस्तर होता,
आशियाना है आकाश,
मयंक की शीतलता हो,
बादलों का हो प्रेम-वृष्टि,
आनन्द मिलता जाता है,
प्रभु की है कैसी ये सृष्टि,
प्रकृति की हम सेवा करें,
समझें उन्हें माता समान,
वृक्ष लगाकर करें हम सब,
उनका अलग ही सम्मान,
निज कर्मों से सींच धरा को,
हमें बहुत कुछ ही दे जाना है,
निज संघर्ष के द्वारा पल-पल,
एक नवीन आदर्श दिखाना है

गिरीन्द्र मोहन झा, +२ भागीरथ उच्च विद्यालय, चैनपुर- पड़री, सहरसा
