मनहरण घनाक्षरी छंद
बसंत बहार ले के,
रंगों का त्योहार आया,
जगदंबा माता संग, शिव खेलें फाग है।
सिर पर जटा जूट,
हाथ लिए कालकूट,
बने जब नीलकंठ, गले पड़ा नाग है।
तन पे वसन पीत,
जग को सिखाते रीत,
जगत पिता के हाथ, उड़ता पराग है।
पहन के मृगछाल,
अबीर लगाते गाल,
दुनिया को सिखलाते, प्रेम अनुराग है।
जैनेन्द्र प्रसाद रवि’
म.वि. बख्तियारपुर, पटना
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