बचपन में जो नहीं पिटाया
बचपन में जो नहीं पिटाया, उसका है इतिहास नहीं।
निज घर में पिंजरबद्ध हुआ,उसका है इतिहास कहीं।।
बचपन के पनघट पर जाकर,घोंघे मोती पातें हैं।
डोर पकड़कर समय नदी में,गोंते खूब लगाते हैं।।
जब भी हो एकांत जिंदगी,चलते बाग-बगीचे में।
हरियाली को देखा करते,जाकर फूल-गलीचे में।।
तोता मैना चातक कोयल,सबकी थी पहचान मुझे।
भिन्न बोलियाॅं बोलीं जब-जब,दिखे वहीं रसखान मुझे।।
मन को जितना दौड़ाते थे,उतना दौड़ा जाता था।
बदन दौड़ना चाहे भी तो,विवस स्वयं को पाता था।।
निश्चय जिसका करता मन-मन,चोरी उसकी कर लेता।
आसमान के चंदा को भी,अंदर नीर पकड़ लेता।।
आज डरा हूॅं जिस गंदा से, तब तो थी पहचान नहीं।
कीचड़ वाले जल-तन ऊपर,देती छोड़ निशान कहीं।।
जिस खोडर में तोते होते,उधर पाॅंव बढ़ जाते थे।
संग लिए जब घर को लाते,हृदय स्नेह मढ़ जाते थे।।
कभी टिकोले के अंदर से, मुख मंडल मुस्काता था।
कागज की नौका को गढ़ना,अंतस को नहलाता था।।
कभी नदी के तट पर चलकर,धारा में नहलाते थे।
मिल जाए जब बंधु संग में,मस्ती में खो जाते थे।।
कागज की नौका की कीमत,अब तो कौन लगाते हैं।
पास रहा मोबाइल अब तो,दिल में चित्र सजाते हैं।।
रेखा से कब बने किनारे,सोंच दुखी हो जाते हैं।
जब खाई बढ़ रही निरंतर,प्रलय काल बतलाते हैं।।
रचनाकार –
रामपाल प्रसाद सिंह ‘अनजान’
प्रभारी प्रधानाध्यापक
मध्य विद्यालय दर्वेभदौर
पंडारक पटना बिहार
प्रकाशनार्थ प्रस्तुत
