प्राण संग दुनिया से कर्म धर्म साथ जाते,
केवल मानव तन
जलता है आग़ में।
दीप संग तेल जले परवाना गले मिले,
वर्तिका में छिपी होती
रोशनी चिराग में।
अज्ञानी मानव मन देख के सुंदर तन,
भौंरे सा उलझ जाता
फूलों के पराग में।
सुन के सुन्दर तान खुद का ना रहे भान,
सुध-बुध भूल मन
रम जाता राग में।
जैनेन्द्र प्रसाद ‘रवि’
म.वि. बख्तियारपुर, पटना
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