मां और धूप
ये तपती धूप,
याद दिलाती है मुझे,
मेरे बचपन की।
मेरी मां कभी -कभी नंगे पांव
दौड़कर आती थी मेरे विद्यालय
और शिक्षक से कहती _
मास्टर साहब!
मेरी बेटी कहां है?
वह कुछ भी नहीं खाई है
भूखी है
कैसे पढ़ेगी वह
कैसे बढ़ेगी वह..
दिमाग कैसे खुलेगा
फिर वर्गकक्ष की ओर देखकर
मेरा नाम लेकर बुलाती
और अपने आँचल की पोटली खोलकर मेरी ओर बढ़ाती
और नम आंखों से कहती _
तू भूखी क्यों चली आई
ले खाले मैं तेरे लिए लाई हूं नाश्ता बनाकर।
उनके पोटली में,
उनके हाथों से ओखली में कुटे धान के चावल के भूनें भूंजे,
चुल्हे में पके आलू के चोखे हरी मिर्च ना जाने क्या क्या
थोड़ा खाकर ठंडा पानी पी लेती
खाने में इतना स्वाद और आनंद आता कि आजकल का पिज्जा बर्गर भी फेल
कभी कभी मक्के की रोटी के साथ सरसों का साग
और पके आलू और भूनें हुए झूरी का सन्ना
ओह मां!
तेरी हाथों से बने व्यंजनों का क्या कहना
खाना स्वादिष्ट क्यों न बने
तुम स्तुति करते हुए जो खाना पकाती
स्वयं सुचरिता मां
सदा थोड़े में हीं संतुष्ट रहने वाली
कण को अन्न बनाने वाली
अपनी मेहनत और लगन से घर को चलाने वाली
तुमने हीं तो हमें सक्षम बनाया
कांटों भरी राहों में चलना सिखाया
पढ़ा लिखा कर काबिल बनाया
हाथ नहीं उठाया कभी पर
अपनी शिक्षा की छड़ी से
पीटकर, मेहनत की आग में जलाकर, संघर्ष की लौ में तपाकर
तूने हीं तो मुझे कुंदन बनाया!
ओह मां!
तभी तो मुझे धूप ,
इतनी प्यारी लगती है
बिल्कुल मेरी मां की तरह
टूटे हुए लोगों में
आशाओं की किरण भरने वाली
युवाओं को कर्मठ बनाने वाली
आलस्य भगाकर लोगों में
अपने कर्म और कर्त्तव्य की ओर
नवीन चेतना का संचार करने वाली
बुराई के अंधेरों को चीरकर
अच्छाई की रौशनी बिखेरने वाली,
सब पर समभाव से
प्रेम लुटाने वाली धूप!
तुम हो तो जीवन है
बहुत सुंदर, बहुत शीतल और
हरा भरा ।
बिल्कुल मां की तरह ।
स्वरचित:-
मनु कुमारी
प्रखंड शिक्षिका
मध्य विद्यालय सुरीगांव।