जिसके साए तले
बढ़ते हैं राजा और रंक
या फिर हो कोई मलंग
जन्म से लेकर जवानी तक
उसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं?
एक शागिर्द की तरह।
हर खुशी
हर आंसू को
उसी संग साझा करते हैं
अक्सर सलाह भी लिया करते हैं।
वह भी कभी गुरू
कभी सखा के रूप में अपना
सर्वोत्तम सर्वस्व
सर्वश्रेष्ठ दिया करती है ।
कभी कुछ मांगती भी नहीं है
बस!
हमारे चेहरे को देख मुस्कुराती है
इसी में उसे असीम खुशी मिलती है
और हम पर सर्वस्व लुटा देती है।
आज के कलयुगी बच्चे
चाहे जितना सताएं , दे यातनाएं
बेदखल कर दें घर से या
करें अपमानित
पहुंचाएं ठेस स्वाभिमान को
फिर भी देती है वो दुआएं!
रहो तुम खुश,
चांद तारों सा जगमगाए
मेरी उम्र भी तुझे लग जाए।
हाय!
ये मां भी किस मिट्टी की बनी होती है?
उसे अपनी फ़िक्र तनिक नहीं होती है
होती है तो सिर्फ बच्चों की..
खाया होगा कि नहीं?
सही से पहुंच तो गया होगा!
और न जाने क्या क्या?
भले स्वयं भूखी हो
कितना भी रूठी हो?
लेकिन सदैव उसे
हमारी ही चिंता लगी रहती है।
उसे किसी चीज़ का कोई फर्क नहीं पड़ता
पड़ता है तो सिर्फ अपने बच्चों के दर्द से!
कहो जननी जगत की जय हृदय से!
© ✍️नवाब मंजूर
प्रधानाध्यापक, उमवि भलुआ शंकरडीह
तरैया(सारण