संग्राम क्यों होते रहे,
संघर्ष है विचारों की,
अहंभाव समाहित,मन करे परेशान।
केवल मानव नहीं,
प्रकृति के कण-कण,
द्वंदवाद से ग्रसित,यह देख हूँ हैरान।
स्वर्ण युग की लालसा,
लुप्त हुआ तिमिर में,
स्वार्थ की प्रकाष्ठा देख,याद आते हैं शैतान।
निरीह का कत्लेआम,
रूधिर धरती पर,
कैसे करूँ विवेचना,कि निकले समाधान।
एस.के.पूनम(पटना)
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