कांधे पर चढ़कर, तन से लिपट कर,
आसपास बच्चे बैठे, दादाजी पर ध्यान है।
सिर्फ श्वेत बाल नहीं, झुर्रियों से गाल नहीं,
पोते-पोतियो से होती, दादा की पहचान है।
अपनी जुबानी कहें, पुरानी कहानी कहें,
निज जिम्मेवारियों का, उनको होता भान है।
भरा – पूरा घर-द्वार, बड़ा होता परिवार,
नाती पोते पोतियों में, बसें उनके प्राण हैं।
बच्चे विद्यालय जाते, देर शाम घर आते,
सिर्फ काले अक्षरों का, अधूरा होता ज्ञान है।
माता-पिता पौधे जैसे, फल डाल लगे वैसे,
अनुभवी दादा-दादी, बरगद समान हैं।
संतान से स्नेह आशा, मात्र होती अभिलाषा,
बुजुर्ग हीं समाज के, विशाल बिरवान हैं।
जैनेन्द्र प्रसाद रवि’
म.वि. बख्तियारपुर, पटना
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