रे! सर्दी का प्रहर,
अब और ना ठहर!
क्यों गरीबों के सिर पर तू,
ढा रहा है कहर।
रे सर्दी का प्रहर।।
ठिठुर रहे हैं बच्चे बूढ़े,
तन पर झूल और गुदड़ी ओढ़े।
उसके घर क्यों आफत बनकर,
कर रहा है तू बसर।
रे सर्दी का प्रहर।।
ठंडी से ठिठुर रही है अवनि,
पंछी दुबके हैं पेड़ों पर ।
मुरझाई है कलियां सारी,
सोया है भ्रमर ।
रे सर्दी का प्रहर।।
रात बड़ी और दिन हैं छोटे,
मजदूर कहो कैसे घर लौटे।
आकाश में कोहरा घना- घना है,
चहुंओर है शीतलहर।
रे सर्दी का प्रहर।।
किसी के घर कंबल व रजाई,
किसी के घर दिखे न चटाई।
कपड़ों के बोझ से दबा कोई,
कोई ठिठुर कर करे गुजर।
रे सर्दी का प्रहर।।
कोई मौज नहीं, उमंग नहीं है ,
प्रकृति में कोई रंग नहीं है।
सूरज की नयी किरणें देकर ,
चले जा अपने डगर।
रे सर्दी का प्रहर।।
पूस – फूस को संग ले जाओ,
माघ आशाओं का मंजर लाओ।
सत्य राह पर सदा चलें हम,
सत्कर्म में बीते सफर।
रे सर्दी का प्रहर ।।
स्वरचित:-
मनु कुमारी
प्रखंड शिक्षिका,
मध्य विद्यालय सुरीगांव,
बायसी, पूर्णियाँ, बिहार