सागर ने नदी से कहा-
सरिते! लोग कहते हैं,
तुम नदी समान बनो,
चलो, निरंतर चलो,
विघ्नों को लाँघकर,
अनवरत आगे बढ़ो,
नदी ने सागर से कहा-
तात! मेरी शरण आप हैं,
मेरी मंजिल भी आप ही हैं,
मैं कहती हूँ- समुद्र-सा बनो,
शांतचित्त बनो, धीर-गम्भीर बनो,
मर्यादित बनो, सहिष्णु बनो,
हृदय का विशाल बनो, उदार बनो
प्रकृति कहती- तुम नदी-सागर सा बनो,
पूर्णता वहीं, जहाँ हैं ये दोनों ही,
तुम सागर बनो, तुम नदी-सा बनो,
तुम धीर-गम्भीर बनो, विशाल बनो,
तुम निरंतर बढ़ो, तुम गतिमान रहो।
गिरीन्द्र मोहन झा, +2 शिक्षक, +2 भागीरथ उच्च विद्यालय, चैनपुर-पड़री, सहरसा
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