वर्तमान में पक्षी जगत की गौरैया अब विलुप्ति के कगार पर है।
कहां चली गई कभी मेरे घर की मुंडेर की कोमल गौरैया,
बचपन में कहते थे इसे छोटी ,प्यारी औ सोन चिरैया।
उस जमाने की चींची मधुर बोल से घर को चहकाती,
कभी आंगन- छत की मुंडेर छत पर,ये पंख फरफराती।
प्यास तृप्ति से रोज अपनी मीठे बोल से याद दिलाती,
चावल के छोटे दाने फैला,जिसे मां खुद्दी कह खिलाती।
चहक-चहककर मां के सामने,दाना चुगती और गाती,
हवा के साथ-साथ स्वर लहरी बन,संगीत सुरों में आती।
एक समय इन गोरैयों का,जब कठिन जीवन दौर आया,
मां ने कहा-मानुष की घोर नजर लग गई,ऐसा मैने पाया।
प्रकृति की सोन चिरैया को,दाना-पानी की कमी हो आई,
इसके घोंसले, घर के मुंडेरों पर रहने के आसरे छिन गई।
एक समय जब ऐसा आया,गोरैया का चहकना बंद हुआ,
घर-आंगन की रौनक ,संगीत स्वरों का सुनना बंद हुआ।
प्रकृति के इस अनमोल रचना,अब है विलुप्ति के कगार पर,
घर की रही यह सदस्य चिरैया,फुदका करती थी कोटर पर।
मानव ने रचा कैसा खेल,प्रकृति की इस रचना को लगी चोट,
पता नहीं कहां जाकर छुप गई,किस-किस में आ गई खोट।
बार-बार कवि हृदय द्रवित हो कह उठा,अपने मनप्रांगन से,
इसने क्या बिगाड़ा था,जो हो गई गायब हर घर आंगन से।
ऐ मनुज ! क्यों स्वार्थी बन, इसका आसियाना छिन लिया,
इसके जीवन जीने की कला को, तूने क्यूं लील सा दिया।
_सुरेश कुमार गौरव,शिक्षक,पटना (बिहार)
स्वरचित मौलिक रचना
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